श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : विश्वामित्र का
राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना,
तुलसीदास जी कहते हैं कि जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा
और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों
के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं ।
यह सब चरित्र मैंने गाकर कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर
सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में पवित्र स्थान जानकर बसते थे ।जहाँ वे
मुनि जप,
यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु
से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि बहुत दुःख पाते थे ।
गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई
कि ये पापी राक्षस भगवान के मारे बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार
किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है । इसी बहाने जाकर मैं
उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ। अहा! जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं
नेत्र भरकर देखूँगा ।
बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं
लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे ।
राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत् करके मुनि का
सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया । चरणों को धोकर बहुत पूजा की और
कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए,
जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया।
फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल
दिया और उनसे प्रणाम कराया। श्री रामचन्द्रजी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल
गए। वे श्री रामजी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो ।
तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे- हे मुनि!
इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा ।
मुनि ने कहा- हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत
सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई
सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सुरक्षित हो जाऊँगा ।
हे राजन्! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति
होगी और इनका परम कल्याण होगा ।
दोहा :
* ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
चौपाई :
* यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥
* जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि
डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥
* गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न
निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥
*एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥
दोहा :
* बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥
चौपाई :
* मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र
समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥
* चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं
दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥
*पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह
बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥
* तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु
काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥
* असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥
दोहा :
* देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
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