श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : पृथ्वी की करुण पुकार और उसे ब्रहमाजी द्वारा
सांत्वना देना
ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके
श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे ।
सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ
पावें ताकि उनके सामने फरियाद करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता
था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं ।
जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ उसके लिए सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज
में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही-
मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से
व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों ।
वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे
रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से
प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र
व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए
जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र
व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी
ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की ।
मेरी बात सुनकर
ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो
गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान
होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे ।
सोरठा :
* धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
चौपाई :
* बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ
पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥
* जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा
तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥
* हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं
मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥
* अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ
जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥
दोहा :
* सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥
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