श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग : अयोध्या
में उल्लास
फिर राजा ने
नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया
ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानंद में मग्न हैं ।
स्त्रियाँ झुंड की
झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश लेकर और
थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करती हैं । वे आरती
करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों
का गान करते हैं ।
राजा ने सब किसी को
भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी लुटा दिया । नगर की सभी गलियों के बीच-बीच में
कस्तूरी, चंदन और केसर की कीच मच गई॥4
घर-घर मंगलमय बधावा
बजने लगा, क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के
स्त्री-पुरुषों के झुंड के झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं ।
कैकेयी और सुमित्रा-
इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर
सकते ।
अवधपुरी इस प्रकार
सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को
देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परन्तु फिर भी मन में
विचार कर वह मानो संध्या बन कर रह गई हो ।
अगर की धूप का बहुत
सा धुआँ मानो संध्या का अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है ।
राजभवन में जो अति
कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से सनी
हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी अपनी चाल भूल गए। एक महीना
उन्होंने जाता हुआ न जाना ।
महीने भर का दिन हो
गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती।
दोहा :
* नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥
चौपाई :
* ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति
बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥
* बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि
धाईं॥
कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥
कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥
* करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि
परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥
* सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं
ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥
दोहा :
* गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥
चौपाई :
* कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
* अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु
राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥2॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥2॥
* अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अबीर मनहुँ
अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥3॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥3॥
* भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु
सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
दोहा :
* मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
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