श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : पृथ्वी और देवताओं आदि की करुण पुकार
रावण के राज्य में राक्षस लोग जो घोर अत्याचार
करते थे, उसका
वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके
पापों का क्या ठिकाना ।
पराए धन
और पराई स्त्री पर अपने अधिकार में लेने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़
गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं से सेवा करवाते थे ।
श्री
शिवजी कहते हैं कि- हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म
के प्रति लोगों की अतिशय ग्लानि देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई और वह
सोचने लगी कि पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना
भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे दूसरों का अनिष्ट करने
वाला लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर
रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती और अंत में हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और
मुनि छिपे थे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर
किसी से कुछ काम न बना ।
तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर
ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी
गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में
अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-
जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का
सहायक है ।
ब्रह्माजी
ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु
अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे ।
सोरठा :
* बरनि न जाइ अनीति घोर
निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥
चौपाई :
* बाढ़े
खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥
* जिन्ह
के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥
* गिरि
सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥
*धेनु
रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4॥
छन्द :
* सुर
मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
सोरठा :
* धरनि
धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥
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