श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग :
रावण का घोर अत्याचार
रावण के डर से सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और
नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे ।
उसने
भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने
दिया। इस प्रकार मंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपनी इच्छानुसार
राज्य करने लगा और देवता, यक्ष, गंधर्व,
मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत
सी अन्य सुंदरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर विवाह किया
।
मेघनाद से उसने जो कुछ
कहा, उसे मेघनाद ने मानो पहले से ही कर
रखा था ।
सब राक्षसों के समूह
देखने में बड़े भयानक, पापी और
देवताओं को दुःख देने वाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से
अनेकों प्रकार के रूप धरते थे।
जिस प्रकार धर्म की जड़
कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते
थे। जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी
नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते थे ।रावण के डर से कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में
भी सुनने को नहीं मिलते थे ।
जप, योग, वैराग्य,
तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से
सुन पाता, तो उसी समय स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता,
वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल
गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद
और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल
देता था।
राक्षस लोग जो घोर
अत्याचार करते थे, उसका
वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके
पापों का क्या ठिकाना ।
दोहा :
* भुजबल
बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182 क॥
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182 क॥
* देव
जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥182 ख॥
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥182 ख॥
चौपाई :
* इंद्रजीत
सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥
* देखत
भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥2॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥2॥
* जेहि
बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥3॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥3॥
* सुभ
आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥4॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥4॥
छन्द :
* जप जोग
बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
सोरठा :
* बरनि न
जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥
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