श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग :
बलशाली सार्वभौम सम्राट रावण का देवताओं पर अत्याचार
रावण के पास
दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और
अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत को जीत
सकते थे ।सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके
दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित
परिवार को देखा-
पुत्र-पौत्र, कुटुम्बी और सेवक
ढेर-के-ढेर थे। सारी राक्षसों की जातियों को तो गिन ही कौन सकता था! अपनी सेना को
देखकर स्वभाव से ही अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला-
हे समस्त
राक्षसों के दलों! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान शत्रु को
देखकर भाग जाते हैं ।
उनका मरण
एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। उनके ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध- इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो ।
भूख से
दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं सर्वथा पराधीन करके
छोड़ दूँगा ।
फिर उसने
मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना
दी। फिर कहा- हे पुत्र ! जो देवता रण में धीर और बलवान् हैं और जिन्हें लड़ने का
अभिमान है, उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य
किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया ।
रावण के
चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण
को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाओं का आश्रय लिया ।
दिक्पालों
के सारे सुंदर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके
देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था ।
रण के मद
में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौड़ता फिरा, परन्तु उसे ऐसा योद्धा
कहीं नहीं मिला। सूर्य, चन्द्रमा, वायु,
वरुण, कुबेर, अग्नि,
काल और यम आदि सब अधिकारी तथा किन्नर, सिद्ध,
मनुष्य, देवता और नाग- सभी के पीछे वह
हठपूर्वक पड़ गया, किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने
दिया। ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गए ।डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और
नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे
उसने
भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने
दिया। इस प्रकार मंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपनी इच्छानुसार
राज्य करने लगा और देवता, यक्ष, गंधर्व,
मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत
सी अन्य सुंदरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर विवाह किया
।
दोहा :
* कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥
चौपाई :
* कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥
* सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥2॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥2॥
* सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥3॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥3॥
* तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥4॥
द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥4॥
दोहा :
* छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥
चौपाई :
* मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥
* तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥
* चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥
* दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥
* रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥
* किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥
* आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7॥
दोहा :
* भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182 क॥
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182 क॥
* देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥182 ख॥
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥182 ख॥
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