श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : राजा दशरथ ने कराया पुत्रकामेष्टि यज्ञ
अवधपुरी में राजा दशरथ उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरण वाली थीं। वे विनीत
और पति के अनुकूल चलने वाली थीं और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था ।
एक बार राजा के मन
में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों
में प्रणाम कर बहुत विनय की । राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया। गुरु
वशिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया और कहा- धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में
प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे ।
वशिष्ठजी ने श्रृंगी
ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के भक्ति सहित
आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए । और दशरथ
से बोले -वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम
सिद्ध हो गया। हे राजन्! अब तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट
दो ।
तदनन्तर अग्निदेव
सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गए। राजा परमानंद में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था ।
दोहा :
* कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥
चौपाई :
* एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत
नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
* निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि
समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥
* सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य
करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥
दोहा :
*जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध
तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥
दोहा :
* तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥
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