श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग : बाल्यावस्था की लीलाएं तथा कुमारावस्था में
प्रवेश
तुलसीदास
जी कहते हैं कि बालरूप श्री राम ने जब अपना अद्भुत रूप दिखलाया ,तब कौसल्याजी बार-बार हाथ जोड़कर
विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे ।
भगवान ने
बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया। कुछ समय बीतने
पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए। तब गुरुजी ने जाकर
चूड़ाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पाई। चारों सुंदर
राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं ।
जो मन, वचन और कर्म से अगोचर हैं,
वही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब
राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर
नहीं आते । कौसल्या जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु
ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद 'नेति' (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पाया,
माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं । वे शरीर में धूल
लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया ।वे भोजन करते हैं,
पर चित चंचल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते
हुए इधर-उधर भाग चले ।
श्री
रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल और सुंदर बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी
और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया ।
ज्यों ही
सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत
संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और
थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं ।
चारों
वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक है। चारों भाई विद्या,
विनय, गुण और शील में बड़े निपुण हैं और सब
राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं ।
उनके हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते
हैं। रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते
हुए निकलते हैं, उन
गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से ठिठककर रह जाते हैं ।
कोसलपुर
के रहने वाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्री रामचन्द्रजी
प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं ।
दोहा :
* बार
बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
चौपाई :
* बालचरित
हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥
* चूड़ाकरन
कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
* मन
क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
* कौसल्या
जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
* धूसर
धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।
दोहा :
*भोजन
करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥
चौपाई :
* बालचरित
अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥
* भए
कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
* जाकी
सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
* करतल
बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥
दोहा :
* कोसलपुर
बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥
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