श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग : नामकरण संस्कार एवं बाललीला का आनन्द
राजा दशरथ
ने सबके मन को उपहार से संतुष्ट किया। इसी से सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि
तुलसीदास के स्वामी सब चारों राजकुमार चिरजीवी हों।
इस प्रकार कुछ दिन
बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा
ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी को बुला भेजा । मुनि की पूजा करके राजा ने कहा- हे
मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिए।
मुनि ने कहा- हे राजन्! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा ।
ये जो आनंद के
समुद्र और सुख की राशि हैं,
जिस आनंदसिंधु के एक कण से तीनों लोक सुखी होते
हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और
सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है ।
जो संसार का
भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण मात्र
से शत्रु का नाश होता है,
उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है ।
जो शुभ लक्षणों के
धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठजी ने उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा है ।
चौपाई :
गुरुजी ने हृदय में
विचार कर ये नाम रखे और कहा- हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व हैं।
जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने इस समय तुम लोगों के प्रेमवश बाल लीला के रस में सुख माना है
।
बचपन से ही श्री
रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रीति
जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की
प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई ।
श्याम और गौर शरीर
वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं जिसमें दीठ न लग
जाए। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम
हैं, तो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक
हैं । हृदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस
कृपा रूपी चन्द्रमा की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में लेकर और कभी उत्तम
पालने में लिटाकर माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है ।
जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति
के वश कौसल्याजी की गोद में खेल रहे हैं ।
दोहा :
* मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
चौपाई :
* कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु
राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥
* करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि
राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥
*जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥
* बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
दोहा :
* लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
चौपाई :
* धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत
चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥
* बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति
मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2॥
*स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन
तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥
* हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर
हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥
दोहा :
* ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥
bahut hi gyan vardhak jankari
जवाब देंहटाएंAti sunder
जवाब देंहटाएं