रामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग: श्री
रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर जब दिया , वह शोभा
किसी प्रकार भी कही नहीं जाती ।
जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि,
वेद ध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर
चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं ।
वर और कन्या सुंदर भाँवरें दे रहे हैं। सब
लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं।तुलसीदास जी कहते हैं
कि इस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं हो सकता,
जो कुछ उपमा कहूँ वही थोड़ी होगी ।
श्री रामजी और श्री सीताजी की सुंदर परछाहीं
मणियों के खम्भों में जगमगा रही हैं, मानो कामदेव और रति
बहुत से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं ।
कामदेव और रति को उनके दर्शन की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं हैं,
इसीलिए वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखने वाले
आनंदमग्न हो गए और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गए ।
मुनियों ने आनंदपूर्वक भाँवरें फिराईं और नेग
सहित सब रीतियों को पूरा किया। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दे रहे
हैं, यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती । मानो कमल को
लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है।
अर्थात श्री राम के हाथ को कमल की, सेंदूर को पराग की,
श्री राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की
उपमा दी गई है। फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूलह और दुलहिन
एक आसन पर बैठे ।
दो0-जय धुनि बंदी बेद
धुनि मंगल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान।।324।।
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं।।नयन लाभु सब सादर लेहीं।।
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा।।
दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी।।
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।
अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।।
बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान।।324।।
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं।।नयन लाभु सब सादर लेहीं।।
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा।।
दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी।।
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।
अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।।
बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें