प्रसंग
है...विवाह के पश्चात
सीता जी बार-बार रामजी को देखती
हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके
नयन सुंदर मछलियों की छबि को हर रहे हैं :
पुनि
पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥2॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥
नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निदाना॥4॥
सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥
सीता
जी सकुचा कर राम के जिस रूप को देख रही है ...उसका वर्णन तुलसीदास जी
ने इन शब्दों में किया है
...:
स्याम
सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
*
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
पीत
जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
पिअर
उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
सुंदर
भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥