गुरुवार, 22 सितंबर 2016

325-श्री रामचन्द्रजी के विवाह की रीति की भांति सब राजकुमार विवाहे गए।


रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: श्री रामचन्द्रजी के विवाह की रीति की भांति  सब राजकुमार विवाहे गए।

 श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गए। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती, सारा मंडप सोने और मणियों से भर गया । बहुत से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपड़े, जो  बहुमूल्य थे तथा हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें-आदि अनेकों वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाए। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है, वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गए। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सब कुछ ग्रहण किया । उन्होंने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले -

दो0-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।325।।
जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी।।
कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी।।
कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।।
गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी।।
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।।
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने।।
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा।।
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी।।

रविवार, 11 सितंबर 2016

324-छं0विवाह का सामान सजाकर तीनों राजकुमारियों को बुला लिया।

रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया।

श्री रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे, उन्हें देखकर दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने सुकृत रूपी कल्प वृक्ष में नए फल देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया, सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मंगल महान है,तुलसीदासजी कहते हैं कि भला, वह वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है ।
तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया ।
जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया ।
दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने-अपने अनुरूप जोड़ी को देखकर सकुचाते हुए हृदय में हर्षित हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुंदरता की सराहना करते हैं और देवगण फूल बरसा रहे हैं। सब सुंदरी दुलहिनें सुंदर दूल्हों के साथ एक ही मंडप में ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अपने चारों स्वामियों (विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म) सहित विराजमान हों ।
छं0-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए।।
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा।।1।।
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के।।
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई।।2।।
जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै।।
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी।।3।।
अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं।।
सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं।।4।।


शनिवार, 10 सितंबर 2016

324-श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दिया...

रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर जब दिया , वह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती ।

जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं ।
वर और कन्या सुंदर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं।तुलसीदास जी कहते हैं कि इस  मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा कहूँ वही थोड़ी होगी ।
श्री रामजी और श्री सीताजी की सुंदर परछाहीं मणियों के खम्भों में जगमगा रही हैं, मानो कामदेव और रति बहुत से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं ।
कामदेव और रति को उनके  दर्शन की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं हैं, इसीलिए वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखने वाले आनंदमग्न हो गए और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गए ।
मुनियों ने आनंदपूर्वक भाँवरें फिराईं और नेग सहित सब रीतियों को पूरा किया। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दे रहे हैं, यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती । मानो कमल को लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। अर्थात श्री राम के हाथ को कमल की, सेंदूर को पराग की, श्री राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गई है। फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूलह और दुलहिन एक आसन पर बैठे ।

दो0-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान।।324।।
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं।।नयन लाभु सब सादर लेहीं।।
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा।।
दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी।।
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।
अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।।
बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

323- राजा जनक और रानी सुनयनाजी प्रेममग्न हो गए और रामचन्द्र जी के पवित्र चरणों को पखारने लगे ।






रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: राजा जनक और रानी सुनयनाजी   प्रेममग्न हो गए और रामचन्द्र जी के पवित्र चरणों को पखारने लगे ।
हवन के समय अग्निदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहुति ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मण वेष धरकर विवाह की विधियाँ बताए देते हैं ।
जनकजी की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुंदरता सबको बटोरकर विधाता ने उन्हें सँवारकर तैयार किया है ।
समय जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक ले आईं। सुनयनाजी जनकजी की बाईं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों ।
पवित्र, सुगंधित और मंगल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुंदर परातें राजा और रानी ने आनंदित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं ।
मुनि मंगलवाणी से वेद पढ़ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश से फूलों की झड़ी लग गई है। दूलह को देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गए और उनके पवित्र चरणों को पखारने लगे ।

दो0-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं।।323।।
जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी।।
सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई।।
समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई।।
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना।।
कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे।।
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी।।
पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी।।
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे।।

322-छं0-मुनियों ने सीताजी को सुंदरसिंहासन दिया। ।



रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: देवताओं की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुंदर
सिंहासन दिया। ।

कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर  ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं। देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय भी मन में चाह मात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिए तैयार रहते हैं ।
स्वयं सूर्यदेव प्रेम सहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुंदर सिंहासन दिया। श्री सीताजी और श्री रामजी का आपस में एक-दूसरे को देखना तथा उनका परस्पर का प्रेम किसी को लख नहीं पड़ रहा है, जो बात श्रेष्ठ मन, बुद्धि और वाणी से भी परे है,तुलसीदास जी कहते हैं कि  उसे कवि क्यों कर प्रकट करे?
छं0-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।।
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।
भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं।।1।।
कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो।।
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै।।

मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै।।2।।

322-सीताजी मंडप में आईं...









रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: सीताजी मंडप में आईं और दोनों कुलगुरुओं ने उस अवसर की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार किए।

सीताजी सहज ही स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित हो॥
 तुलसीदासजी कहते हैं कि सीताजी की सुंदरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बारातियों ने आते देखा ।
सभी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी को देखकर तो सभी कृतकृत्य हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनंद था, वह कहा नहीं जा सकता ।
देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनंद में मग्न हैं ।
इस प्रकार सीताजी मंडप में आईं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ पढ़ रहे हैं। उस अवसर की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किए।

दो0-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय।।322।।
सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई।।
आवत दीखि बरातिन्ह सीता।।रूप रासि सब भाँति पुनीता।।
सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा।।
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता।।
सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।।
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी।।
एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।।
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू।।

321-वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर सखियाँ सीताजी को सजाकर मंडप में लाती हैं ।



रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर सखियाँ सीताजी को सजाकर
      मंडप में लाती हैं ।

श्री रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुंदर नेत्र रूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं, प्रेम और आनंद बहुत है । समय देखकर वशिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। वशिष्ठजी ने कहा- अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइए। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले । बुद्धिमती रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों समेत बड़ी प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणों की स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुंदर मंगल गीत गाए ।
श्रेष्ठ देवांगनाएँ, जो सुंदर मनुष्य-स्त्रियों के वेश में हैं, सभी स्वभाव से ही सुंदरी और श्यामा हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो रही हैं ।
उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ सीताजी का श्रृंगार करके, मंडली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मंडप में लिवा चलीं ।

दो0-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर।।321।।
समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए।।
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई।।
रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी।।
बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं।।
नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।।
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं।।
बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी।।
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई।।
छं0-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं।।
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं।।

320-बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन ।

रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: राजा जनक द्वारा  ऋषियों, राजा दशरथजी एवं बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन ।

जनक ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया । फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर उनके संबंध से अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की ।
राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ ।
राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं, वे कपट से ब्राह्मणों का सुंदर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें सुंदर आसन दिए , किन्तु
कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है। आनंदकन्द दूलह को देखकर दोनों ओर आनंदमयी स्थिति हो रही है। सर्वज्ञ श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं को पहिचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिए। प्रभु का शील-स्वभाव देखकर देवगण मन में बहुत आनंदित हुए।

दो0-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।320।।
बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा।।
कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई।।
पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती।।
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू।।
सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी।।
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ।।
कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ।।
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें।।
छं0-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई।।
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए।।

319-समधियों का मिलाप


रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: समधियों का मिलाप

दूलह को आसन पर बैठाकर, आरती करके देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।
नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष समाता नहीं है
वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए ।
जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे
वे कहने लगे- जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के समधी तो आज ही देखे ।
देवताओं की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आए।
मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी मोहित हो गए।  जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती।

छं0-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं।।
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।
दो0-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।319।।
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।
जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।।
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।
देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची।।
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।
छं0-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।।
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही।।

318-श्री रामचन्द्रजी का मंडप में आना ।




रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: श्री रामचन्द्रजी का मंडप में आना ।

श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते । मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए ।
पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। रानी ने आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया
दशरथजी अपनी मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं ।
आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए ।

दो0-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु।।318।।

नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी।।
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।
पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।।
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।
दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।।
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला।।
नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई।।
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।

317-स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं ।


रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: गजगामिनी, चन्द्रमुखी और मृगलोचनी स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं
अनेक प्रकार से आरती  सजाकर और समस्त मंगल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी  स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं
सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी  और सभी मृगलोचनी  हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुड़ाने वाली हैं। रंग-रंग की सुंदर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं
समस्त अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाए हुए वे कोयल को भी लजाती हुई गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं ।
अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुंदर मंगलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ थीं, वे सब कपट से सुंदर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने उन्हें पहचाना नहीं ।
दो0-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।317।।
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि।।
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा।।
सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ।।
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं।।
बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा।।
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी।।
कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई।।
करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी।।
छं0-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली।।
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई।।
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई।।



316-श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप के दर्शन









रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप के दर्शन से देवगण और दोनों राजाओं के
      समाज में आनंद की लहर ।                
 श्रीराम जिस घोड़े पर सवार हैं वह प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो ।उस श्रेष्ठ घोड़े का वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे।
भगवान विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे ।
देवताओं के सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुंदर लाभ उठा रहे हैं।  इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं ।
सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं और कह रहे हैं कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है ।
दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और 'रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मंगल द्रव्य सजाने लगीं ।

दो0-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव।।316।।
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।।
संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।
हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे।।
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।
सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।।
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना।।
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।।
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।
छं0-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी।।
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।

315-वर के रूप में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप का वर्णन ।









रामचरितमानस से ...बालकांड

प्रसंग: वर के रूप में श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप का वर्णन ।

भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप को नख से शिखा तक बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र . जल से भर गए

रामजी का मोर के कंठ की सी कांतिवाला श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करने वाले प्रकाशमय सुंदर पीत रंग के वस्त्र हैं। सब मंगल रूप और सब प्रकार के सुंदर भाँति-भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाए हुए हैं ।
उनका सुंदर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और नेत्र नवीन कमल को लजाने वाले हैं। सारी सुंदरता अलौकिक है। वह कहीं नहीं जा सकती, मन ही मन बहुत प्रिय लगती है ।
साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों को दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करने वाले (मागध भाट) विरुदावली सुना रहे हैं ।
जिस घोड़े पर श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी तेज चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुंदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया हो ।
मानो श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुंदर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।
दोहा :

दो0-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि।।315।।
केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।।
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए।।
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन।।
सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई।।
बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।।
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं।।
जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे।।
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा।।
छं0-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई।।
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।