श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : श्री
राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता
मुनि विश्वामित्र ने राजा जनक से कहा -ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल
के धाम हैं। सारा जगत इस बात का साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर
मेरे यज्ञ की रक्षा की है ।
राजा ने कहा- हे मुनि!
आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये
सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं।
इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर वाणी से कही नहीं जा
सकती। जनकजी आनंदित होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम
है ।
राजा बार-बार प्रभु को देखते
हैं ,दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती। प्रेम से शरीर
पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है।
मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में
लिवा चले ।
एक सुंदर महल जो सब समय सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा
करके राजा विदा माँगकर अपने घर गए ।
रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के
साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था ।
* रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल
धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
चौपाई :
* मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ
निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
* इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न
जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
* पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक
गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
* सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु
लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
दोहा :
* रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु
बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥