श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग : राजा दशरथ विश्वामित्र को राम-लक्ष्मण
दोनों भाइयों को सौंप देते हैं ।
विश्वामित्र राजा दशरथ को राम-लक्ष्मण दोनों
भाइयों को देने के लिए कहते हैं - हे राजन्! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे
स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा ।
किन्तु इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की
कांति फीकी पड़ गई। उन्होंने कहा- हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं,
आपने विचार कर बात नहीं कही ।
हे मुनि!
आप पृथ्वी, गो,
धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के
साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता,
मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा ।
सभी
पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो किसी प्रकार भी देते
नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के
बिलकुल सुकुमार मेरे सुंदर पुत्र!
प्रेम रस
में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बड़ा हर्ष
माना। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का संदेह नाश हुआ ।
राजा ने
बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें
शिक्षा दी। फिर कहा- हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! अब आप ही
इनके पिता हैं, दूसरा
कोई नहीं ।
राजा ने
बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के
महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले ।
पुरुषों
में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले।
तुलसीदास जी कहते हैं कि वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं
।
दोहा :
* देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
* सुनि
राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥
* मागहु
भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥
* सब
सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥3॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥3॥
* सुनि
नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥4॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥4॥
* अति
आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥
दोहा :
* सौंपे
भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥
भावार्थ:-राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर
पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में
सिर नवाकर चले॥208 (क)॥
सोरठा :
* पुरुष
सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥
भावार्थ:-पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई
(राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले। वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के
कारण के भी कारण हैं॥208 (ख)॥