श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : प्रतापभानु की कथा
याज्ञवल्क्यजी
कहते हैं- हे भरद्वाज! इस अत्यन्त पवित्र इतिहास को शिवजी ने पार्वती से कहा था।
अब श्रीराम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो ।
हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ
सत्यकेतु नाम का राजा रहता था ।
वह धर्म की धुरी को धारण करने वाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी,
सुशील और बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए,
जो सब गुणों के भंडार और बड़े ही रणधीर थे ।
राज्य का उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में पर्वत के समान अटल रहता था ।
भाई-भाई में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों
से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने जेठे पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान के
भजन के लिए वन को चल दिए ।
जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गई। वह वेद में बताई हुई विधि के अनुसार उत्तम
रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य में पाप का कहीं लेश भी नहीं रह गया ।
राजा का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान
बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री और बलवान तथा
वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा भी बड़ा प्रतापी और रणधीर था ।
साथ में अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे, जो सब के सब रण में जूझ
मरने वाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे ।
दिग्विजय के लिए सेना सजाकर वह राजा शुभ मुहूर्त साधकर
और डंका बजाकर चला। जहाँ-तहाँ अनेक लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत
लिया ।
अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों
(भूमिखण्डों) को वश में कर लिया और राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया।
सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र चक्रवर्ती राजा था ।
संसारभर को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा ने
अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के
सुखों का समयानुसार सेवन करता था ।
दोहा :
* यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही
बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥
चौपाई :
* सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति
संभु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥
* धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥2॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥2॥
* राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥3॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥3॥
* भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥4॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥4॥
दोहा :
* जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥
चौपाई :
* नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र
समाना॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥1॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥1॥
* सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥2॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥2॥
* बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥3॥
जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥3॥
* सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप
दीन्हे॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥4॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥4॥
दोहा :
* स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥