श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : कपटी मुनि के मायाजाल के वशीभूत होकर
राजा प्रतापभानु ने एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रण दे दिया ।
कालकेतु
राक्षस और कपटी मुनि का षड्यंत्र राजा समझ नहीं सका किन्तु
तेजस्वी
शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक
सूर्य-चन्द्रमा को दुःख देता है ।
तपस्वी
राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो , उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह
सुनाई, तब राक्षस आनंदित होकर बोला -
हे
राजन्! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार इतना काम कर लिया, तो
अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया समझो। तुम अब चिन्ता त्याग सो रहो। विधाता
ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया ।
कुल
सहित शत्रु को जड़-मूल से उखाड़-बहाकर, आज से चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। इस प्रकार
तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यन्त क्रोधी राक्षस चला । उसने
प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास
सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया ।फिर वह राजा के पुरोहित को उठा
ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा
।
वह आप
पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा
और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना ।
मन
में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, जिसमें रानी न जान पावे। फिर
उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री-पुरुष ने नहीं जाना ।
दो
पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने
पुरोहित को देखा,
तब वह अपने उसी कार्य का स्मरणकर उसे आश्चर्य से देखने लगा ।
राजा
को तीन दिन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में लगी रही।
निश्चित समय जानकर पुरोहित (बना हुआ राक्षस) आया और राजा के साथ की हुई गुप्त सलाह
के अनुसार उसने अपने सब विचार उसे समझाकर कह दिए ।
संकेत
के अनुसार गुरु को उस रूप में पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा कि
यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस। उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को
कुटुम्ब सहित निमंत्रण दे दिया ।
श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : कलकेतु राक्षस और कपटी मुनि का षड्यंत्र
राजा समझ नहीं सका
दोहा
:
* रिपु तेजसी
अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥
* तापस नृप निज
सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥
* अब साधेउँ
रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥2॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥2॥
* कुल समेत रिपु
मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥3॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥3॥
* भानुप्रतापहि
बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥4॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥4॥
दोहा
:
* राजा के
उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥
चौपाई
:
* आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥
* मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥2॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥2॥
* गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥3॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥3॥
* जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥4॥
समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥4॥
दोहा
:
* नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥
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