श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : राजा प्रतापभानु को ब्राह्मणों का
श्राप
संकेत
के अनुसार गुरु को उस रूप में पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा कि
यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस। उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को
कुटुम्ब सहित निमंत्रण दे दिया ।
पुरोहित
ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता ।
अनेक
प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला
दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया ।
ज्यों
ही राजा परोसने लगा,
उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर
जाओ, यह अन्न मत खाओ। इसके खाने में बड़ी हानि है ।
रसोई
में ब्राह्मणों का मांस बना है। आकाशवाणी का विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े
हुए। राजा व्याकुल हो गया परन्तु, उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके
मुँह से एक बात भी न निकली ।
तब
ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा!
तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो ।
रे
नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने
हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा ।
एक
वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप
सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई-
हे
ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया।
आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन
बना था ।
देखा
तो वहाँ न भोजन था,
न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ
लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और बड़ा ही भयभीत और व्याकुल होकर वह
पृथ्वी पर गिर पड़ा।
हे
राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों
का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं
सकता ।
* नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥
चौपाई
:
* उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥
* बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥2॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥2॥
* परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥3॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥3॥
* भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥4॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥4॥
दोहा
:
*बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥
चौपाई
:
* छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥
* संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥2॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥2॥
* बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥3॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥3॥
* तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥4॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥4॥
दोहा
:
* भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा दोइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥
किएँ अन्यथा दोइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥
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