श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : रावण आदि का विवाह
,लंका में राजधानी का
निर्माण ,कुबेर से पुष्पक विमान छिनना और कैलाश पर्वत से खिलवाड़ ।
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फिर ब्रह्माजी विभीषण के पास गए और बोले- हे
पुत्र! वर माँगो। उसने भगवान के चरणकमलों में निर्मल (निष्काम और अनन्य) प्रेम
माँगा ।
उनको वर देकर ब्रह्माजी चले गए और वे (तीनों भाई)
हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी और
स्त्रियों में शिरोमणि थी ।
मय ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने जान लिया कि
यह राक्षसों का राजा होगा। अच्छी स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ और फिर उसने जाकर
दोनों भाइयों का विवाह कर दिया ।
समुद्र के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा
का बनाया हुआ एक बड़ा भारी किला था। महान मायावी और निपुण कारीगर मय दानव ने उसको
फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे ।
जैसी नागकुल के रहने की (पाताल लोक में) भोगावती
पुरी है और इन्द्र के रहने की (स्वर्गलोक में) अमरावती पुरी है, उनसे भी अधिक सुंदर
और बाँका वह दुर्ग था। जगत में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ ।
उसे चारों ओर से समुद्र की अत्यन्त गहरी खाई घेरे
हुए है। उस (दुर्ग) के मणियों से जड़ा हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का
वर्णन नहीं किया जा सकता ।
भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का
राजा (रावण) होता है, वही शूर, प्रतापी, अतुलित बलवान् अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है ।
पहले वहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे।
देवताओं ने उन सबको युद्द में मार डाला। अब इंद्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक
करोड़ रक्षक यक्ष लोग रहते हैं ।
रावण को कहीं ऐसी खबर मिली, तब उसने सेना सजाकर
किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण
लेकर भाग गए ।
तब रावण ने घूम-फिरकर सारा नगर देखा। उसकी (स्थान
संबंधी) चिन्ता मिट गई और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और
दुर्गम जान
कर रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की ।
योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने सब
राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर
ले आया ।
फिर उसने जाकर (एक बार) खिलवाड़ ही में कैलास
पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकर, बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया ।
दोहा :
* गए बिभीषन पास पुनि
कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥
चौपाई :
* तिन्हहि देइ बर
ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥1॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥1॥
* सोइ मयँ दीन्हि
रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥2॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥2॥
* गिरि त्रिकूट एक
सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥3॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥3॥
* भोगावति जसि अहिकुल
बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥4॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥4॥
दोहा :
* खाईं सिंधु गभीर अति
चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178 क॥
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178 क॥
* हरि प्रेरित जेहिं
कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178 ख॥
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178 ख॥
चौपाई :
* रहे तहाँ निसिचर भट
भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥
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*दसमुख कतहुँ खबरि
असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥2॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥2॥
* फिरि सब नगर दसानन
देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥3॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥3॥
* जेहि जस जोग बाँटि
गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥4॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥4॥
दोहा :
* कौतुकहीं कैलास पुनि
लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥
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