श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : राजा प्रतापभानु का जंगल में भटक जाना
राजा प्रतापभानु नील
पर्वत के शिखर के समान विशाल उस सूअर को
देखकर घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और
उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता ।
अधिक शब्द करते हुए घोड़े को
अपनी तरफ आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर
चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया ।
राजा तक-तककर तीर चलाता है, परन्तु सूअर
छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता
था और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ पीछे चला जाता था ।
सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल
में चला गया,
जहाँ हाथी-घोड़े का गमन नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में
क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोड़ा ।
राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर
पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर
लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया ।
बहुत परिश्रम करने से थका हुआ
और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो
गया ।
वन में फिरते-फिरते उसने एक
आश्रम देखा,
वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से
भाग गया था ।
प्रतापभानु का अच्छे दिन जानकर
और अपना कुसमय अनुमानकर उसके मन में बड़ी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न
अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही मेल किया ।
दरिद्र की भाँति मन ही में
क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था। राजा प्रतापभानु उसी के
पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है ।
राजा प्यासा होने के कारण
व्याकुलता में उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े
से उतरकर उसे प्रणाम किया, परन्तु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना
नाम नहीं बताया ।
राजा को प्यासा देखकर उसने
सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया ।
दोहा :
* नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥
चौपाई :
* आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥
* तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥2॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥2॥
* गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥3॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥3॥
* कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ
गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥4॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥4॥
दोहा :
*खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥
चौपाई :
* फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट
मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥
* समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥2॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥2॥
* रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें
साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥3॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥3॥
* राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि
जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥4॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥4॥
दोहा :
* भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥
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