श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : कपटी मुनि ने राजा प्रतापभानु को ब्राहमण को
वश में करने का उपाय
बताया।
जब राजा प्रतापभानु को कपटी मुनि ने ब्राहमण को वश में
करने की सलाह दी
तो राजा ने उनसे पूछा कि वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते
हैं, कृपा करके वह
भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता ।तब कपटी
तपस्वी ने कहा- हे राजन् !सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं,
पर वे कष्ट साध्य हैं ,बड़ी कठिनता से बनने में
आते हैं, और इस पर भी सिद्ध हों या न हों ।निश्चित नहीं है)
हाँ, एक उपाय बहुत सहज है, परन्तु
उसमें भी एक कठिनता है ।
हे राजन्! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना
तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से
आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया।
परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ
पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में
ऐसी नीति कही है कि बड़े लोग छोटों पर
स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध
समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण
किए रहती है ।
ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए और कहा- हे स्वामी! कृपा कीजिए।
आप संत हैं। दीनदयालु हैं। अतः हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट अवश्य सहिए ।
राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला- हे राजन्!
सुनो, मैं तुमसे
सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, क्योंकि तुम, मन, वाणी और शरीर से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति,
तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते
हैं ।
हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने
न पावे, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा
आज्ञाकारी बन जाएगा ।
यही नहीं, उन (भोजन करने वालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे
राजन्! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन्!
जाकर यही उपाय करो और वर्षभर भोजन कराने का संकल्प कर लेना ।नित्य नए एक लाख
ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प के काल अर्थात एक
वर्ष तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा ।
दोहा :
* होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥
चौपाई :
* सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि
होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥
* मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥
* जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥3॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥3॥
* बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन
धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥4॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥4॥
दोहा :
* अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥
चौपाई :
* जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥
* अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं
मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥2॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥2॥
* जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न
कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥3॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥3॥
* पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु
सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥4॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥4॥
दोहा :
* नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥
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