श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : कालकेतु राक्षस और कपटी मुनि का षड्यंत्र
राजा समझ नहीं सका ।
कपटी मुनि ने राजा प्रतापभानु को ब्राहमण को वश में
करने का जो उपाय बताया उसको पूरा करने के लिए उसे नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को
कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना होगा और राजा के सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक
प्रतिदिन वह मुनि भोजन बना दिया करेगा । वह मुनि कहा है कि
हे राजन्! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण
तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो
उस प्रसंग (संबंध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे । मुनि ने कहा -
मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न
आऊँगा। हे राजन्! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा ।
तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन्!
सुनो, मैं उसका रूप
बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा ।
हे राजन्! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट
होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा ।
मैं वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत में तुमको बुलाकर
सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना । राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी
आसन पर जा बैठा। राजा थका था, उसे खूब गहरी नींद आ गई। पर वह
कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिन्ता हो रही थी ।
उसी समय वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को
भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था ।
उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न
जीते जाने वाले और देवताओं को दुःख देने वाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार
डाला था ।
उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर षड्यंत्र
किया और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा प्रतापभानु कुछ भी न
समझ सका । तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर
मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चन्द्रमा को दुःख देता है
।
दोहा :
* नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥
चौपाई :
* एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र
बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥1॥
करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥1॥
* और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥
* तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥
* गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन
तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥
दोहा :
* मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥
चौपाई :
* सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥
* कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि
भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥
* तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव
दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥3॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥3॥
* तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र
बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥
दोहा :
* रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥
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