श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : कपटी मुनि से राजा प्रतापभानु का वर
मांगना
कपटी मुनि ने राजा प्रतापभानु को कहा कि जब सबसे पहले सृष्टि
उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की,
इसी से मेरा नाम एकतनु है ।
हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं
है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से
विष्णु संसार का पालन करने वाले बने हैं ।
तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु
नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह कपटी तपस्वी
पुरानी कथाएँ कहने लगा । कर्म,
धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का
निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और
संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कही ।
राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम
बताने लगा। तपस्वी ने कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा
लगा । हे राजन्! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ
अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है ।
तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्!
गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता
नहीं ।
हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सरलता, प्रेम,
विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता
उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा
कहता हूँ ।
अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन्! जो मन को भावे वही
माँग लो। सुंदर वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और कपटी मुनि के पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की
।
हे दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं
यह दुर्लभ वर माँगकर क्यों न शोकरहित हो जाऊँ ।
मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक
राज्य हो ।
दोहा :
* आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥
चौपाई :
*जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु
नाहीं॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥
* तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥2॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥2॥
* करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥3॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥3॥
* सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥4॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥4॥
सोरठा :
* सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥
चौपाई :
* नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता
नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥
* देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति
निपुनाई॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥2॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥2॥
* अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन
माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥3॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥3॥
* कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल
मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥4॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥4॥
दोहा :
* जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥
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