श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : छद्मवेशी मुनि से राजा प्रतापभानु का
वार्त्तालाप
राजा प्रतापभानु को प्यासा देखकर उस छद्म –वेशी
साधू ने उन्हें सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और
जलपान किया ।
राजा की सारी थकावट मिट गई, वह सुखी हो
गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने राजा को
बैठने के लिए आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला-
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है ।
राजा ने कहा- हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु
नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते
हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं ।
हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता
है कुछ भला होने वाला है। मुनि ने कहा- हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ
से सत्तर योजन पर है, इसलिए सुनो, घोर
अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता
नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना ।
तुलसीदासजी कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही
सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है ।
हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से
प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की ।
फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई
करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम -धाम विस्तार से
बतलाइए ।
राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय
था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का
क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था ।
वह शत्रु अपने राज्य सुख को स्मरण करके दुःखी था। उसकी छाती कुम्हार
के आँवे की आग की तरह भीतर ही भीतर सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को
यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ ।
वह कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला- अब हमारा नाम
भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं ।
* भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158
* गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥
*को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥2॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥2॥
* नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥3॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥3॥
* हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥4॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥4॥
दोहा :
* निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159 (क)॥
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159 (क)॥
* तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥
चौपाई :
* भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥
* पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥
* तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥3॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥3॥
* समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥4॥
ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥4॥
दोहा :
* कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥
.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें