श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : राजा प्रतापभानु जब शिकार खेलने गए
राजा प्रतापभानु संसारभर को अपनी भुजाओं के
बल से वश में करके अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम
आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था ।
राजा प्रतापभानु
का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। उनके राज्य में
प्रजा सब प्रकार के दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और
धर्मात्मा थे ।
धर्मरुचि मंत्री
का श्री हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति सिखाया
करता था। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण- इन सबकी सदा सेवा करता रहता
था ।
वेदों में
राजाओं के जो धर्म बताए गए हैं, राजा सदा
आदरपूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता
और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था ।उसने बहुत सी
बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ सुंदर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर और
देवताओं के सुंदर विचित्र मंदिर सब तीर्थों में बनवाए ।
वेद और पुराणों
में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया ।
राजा के हृदय
में किसी फल की कामना न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा
कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था ।
एक बार वह राजा
एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब
सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया और वहाँ उसने बहुत से उत्तम-उत्तम हिरन
मारे ।
राजा ने वन में
फिरते हुए एक सूअर को देखा। दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पड़ता था मानो चन्द्रमा को
ग्रसकर राहु वन में आ छिपा हो
उसे उगलता नहीं
है ।
यह तो सूअर के
भयानक दाँतों की शोभा कही गई। उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोड़े की आहट
पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था ।
नील पर्वत के
शिखर के समान विशाल शरीर वाले उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से
चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता ।
दोहा :
* स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥
चौपाई :
* भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥1॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥1॥
* सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥2॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥2॥
*भूप
धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥3॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥3॥
* नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह विचित्र बनाए॥4॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह विचित्र बनाए॥4॥
दोहा :
* जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥
चौपाई :
* हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥
* चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥
* फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥
* कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय
आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥4॥
दोहा :
* नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥
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