श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : राजा प्रतापभानु को कपटी मुनि ने ब्राहमण को
वश में करने की सलाह दी।
कपटी मुनि से राजा प्रतापभानु ने वर मांगा कि
मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर
मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो ।
तपस्वी ने कहा- हे राजन्! ऐसा ही हो, पर एक बात
कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण
कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा । तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान
रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम
ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे । ब्राह्मण कुल से जोर
जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता
हूँ। हे राजन्! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश
किसी काल में नहीं होगा ।
राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा- हे स्वामी! मेरा
नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा।
'एवमस्तु' कहकर वह कुटिल कपटी
मुनि फिर बोला- किन्तु तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से कहना
नहीं, यदि कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं
। हे राजन्! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी
हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना ।
हे प्रतापभानु! सुनो, इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप
से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर
भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी ।
राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण
और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि
ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है ।
यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो भले ही
मेरा नाश हो जाए। मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! केवल एक ही डर
से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है ।
वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह
भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता ।
दोहा :
* जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥
चौपाई :
* कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥1॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥1॥
* तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ
रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥2॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥2॥
* चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा
उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥3॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥3॥
* हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥4॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥4॥
दोहा :
* एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥
चौपाई :
* तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम
अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥
* यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु
भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥2॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥2॥
* सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को
राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥
* जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच
हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥4॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥4॥
दोहा :
* होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥
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