श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : कपटी मुनि ने अपना नाम राजा प्रतापभानु को एकतनु बताया
वह छद्मवेशी मुनि कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी
बोला- अब हमारा नाम भिखारी है,
क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत हैं ।
राजा ने कहा- जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित
होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योंकि
कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है क्यों कि संत वेश में मान होने की
सम्भावना है और मान से पतन की ।
इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन (सर्वथा
अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे
निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिवजी को भी संदेह हो जाता है कि
वे वास्तविक संत हैं या भिखारी ।
आप जो कोई भी हों,
मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा
कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास
देखकर सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह
दिखाता हुआ वह कपट-तपस्वी बोला- हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे
सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया ।
अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता
हूँ, क्योंकि लोक
में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर
डालती है । तुलसीदासजी कहते हैं- सुंदर वेष देखकर मूढ़ नहीं बल्कि चतुर मनुष्य भी
धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के
समान है और आहार साँप का है । कपट-तपस्वी ने कहा- इसी से मैं जगत में छिपकर रहता
हूँ। श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही
सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी ।
तुम पवित्र और सुंदर बुद्धि वाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे
हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ
छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा ।
ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही
त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले
कपटी मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना,
तब वह बोला- हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर
नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त अनुरागी सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए ।
कपटी मुनि ने कहा- जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी
उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी
से मेरा नाम एकतनु है ।
दोहा :
* कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥
चौपाई :
* कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित
अभिमाना॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥
* तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन
प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥2॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥2॥
* जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब
स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥3॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥3॥
* सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥4॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥4॥
दोहा :
* अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥161 क॥
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥161 क॥
सोरठा :
* तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161 ख॥
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161 ख॥
चौपाई :
* तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन
नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥
* तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति
मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥2॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥2॥
* जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज
बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥3॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥3॥
* नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु
नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥4॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥4॥
दोहा :
* आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥
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