श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
प्रसंग : पुष्प
–वाटिका में सीता की शोभा का वर्णन श्री लक्ष्मण से करते हैं
श्री राम
श्री रामचन्द्रजी सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को
विचारकर पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले-
हे तात! यह वही
जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई
हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है।
जिसकी अलौकिक
सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण तो
विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो,
मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं ।
रघुवंशियों का यह
सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन
का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न में भी पराई स्त्री
पर दृष्टि नहीं डाली है ।
रण में शत्रु जिनकी
पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं),
पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को
नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से 'नाहीं' नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं ।
दोहा :
* सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
चौपाई :
* तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥
* जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥
* रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥
* जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥
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