श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग
:जनकपुर में पुष्प –वाटिका का निरीक्षण
रात बीतने पर,
मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे।
जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए थे ।
सब शौचक्रिया करके जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि)
नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। पूजा का समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर
दोनों भाई फूल लेने चले ।
उन्होंने जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु
लुभाकर रह गई है। मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओं
के मंडप छाए हुए हैं।
नए, पत्तों, फलों और
फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी
बोली बोल रहे हैं और मोर सुंदर नृत्य कर रहे हैं ।
बाग के बीचोंबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की
सीढ़ियाँ विचित्र ढंग से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगों
के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं ।
* उठे
लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
चौपाई :
* सकल सौच
करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥
* भूप
बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
*नव
पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
* मध्य
बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥4॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥4॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें