श्रीरामचरितमानस
से ...बालकांड
प्रसंग : अहल्या
उद्धार
मार्ग में एक
आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला
को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही
।
गौतम मुनि की
स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती
है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए ।
श्री रामजी के
पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या
प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी
रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख
से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई
और उसके दोनों नेत्रों से आनंद के आँसुओं
की धारा बहने लगी ।
फिर उसने मन
में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त
निर्मल वाणी से उसने स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी
जय हो! मैं अपवित्र स्त्री हूँ, और हे
प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले
और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार
के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, मेरी रक्षा कीजिए ।
मुनि ने जो मुझे
शाप दिया,
सो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने
वाले श्री हरि को नेत्र भरकर देखा। आपके दर्शन को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभो! मैं
बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई
वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके
चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे ।
जिन चरणों से
परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण
किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार स्तुति
करती हुई बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही
अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी
हुई पतिलोक को चली गई ।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी
ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, हे मन!
तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर ।
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