श्रीरामचरितमानस से
...बालकांड
श्री राम-लक्ष्मण को
देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता
राजा जनक ने मन को प्रेम में मग्न जान विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि
के चरणों में सिर नवाकर गद्गद् वाणी से कहा-
हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?
मेरा मन जो स्वभाव
से ही वैराग्य रूप है, इन्हें देखकर इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे निश्छल भाव से
पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए,
छिपाव न कीजिए । इनको
देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया
है।
मुनि ने हँसकर कहा-
हे राजन्! आपने ठीक ही कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता ।
जगत में जहाँ तक जितने
भी प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। मुनि की वाणी सुनकर श्री
रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं । तब मुनि ने कहा- ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के
पुत्र हैं। मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है ।
ये राम और लक्ष्मण
दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत इस बात का साक्षी
है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है ।
दोहा :
* प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥
चौपाई :
* कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल
पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥
* सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥
* इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन
त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥
* ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु
सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥
दोहा :
* रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
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