श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : मनु-शतरूपा का वरदान मांगना
मनु और सतरुपा से फिर
कृपानिधान भगवान बोले- मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो ।
प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके
चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं ।
फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और
अत्यन्त कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं
बनता। हे स्वामी! आपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर
मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम होता है ।
जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में
संकोच करता है, क्योंकि वह उसके
प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है।
.हे
स्वामी! आप अन्तरयामी हैं, इसलिए उसे जानते ही
हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। भगवान ने कहा- हे राजन्! संकोच छोड़कर मुझसे
माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है ।
राजा ने कहा- हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ!
मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से
भला क्या छिपाना!
राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान
भगवान बोले- ऐसा ही हो। हे राजन्! मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ! अतः
स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा ।
शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा- हे देवी! तुम्हारी
जो इच्छा हो, सो वर माँग लो।
शतरूपा ने कहा- हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे
कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा,
परंतु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करने वाले! वह ढिठाई
भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता (उत्पन्न करने वाले),
जगत के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले ब्रह्म हैं।
ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है।
मैं तो यह माँगती हूँ कि हे नाथ! आपके जो निज जन हैं, वे जो
(अलौकिक, अखंड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते
हैं-
हे प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने
चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें
दीजिए ।
दोहा :
* बोले कृपानिधान पुनि अति
प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥
चौपाई :
* सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी।
धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1॥
* एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम
अगम कहि जाति सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥2॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥2॥
* जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु
संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥3॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥3॥
* सो तुम्ह जानहु अंतरजामी।
पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥4॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥4॥
दोहा :
*दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ
सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
चौपाई :
* देखि प्रीति सुनि बचन अमोले।
एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥
* सतरूपहिं बिलोकि कर जोरें। देबि
मागु बरु जो रुचि तोरें॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥2॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥2॥
* प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई।
जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥3॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥3॥
* अस समुझत मन संसय होई। कहा जो
प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥4॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥4॥
* सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ
निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥
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