श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : मनु-शतरूपा
तप एवं वरदान मांगने की आकाशवाणी
मनु का प्रकार जल का आहार करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार
वर्ष वे वायु के आधार पर रहे ।
दस हजार वर्ष तक
उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर
ब्रह्मा, विष्णु
और शिवजी कई बार मनुजी के पास आए ।
उन्होंने इन्हें अनेक
प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप
से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में
जरा भी पीड़ा नहीं थी ।
सर्वज्ञ प्रभु ने
अनन्य गति वाले तपस्वी राजा-रानी को 'निज दास' जाना। तब परम गंभीर और कृपा रूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी
हुई कि 'वर
माँगो'
।
मुर्दे को भी जिला
देने वाली यह सुंदर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर
ऐसे सुंदर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं ।
कानों में अमृत के
समान लगने वाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनुजी
दण्डवत करके बोले- प्रेम हृदय में समाता न था-
हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए
कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा,
विष्णु और शिवजी भी वंदना करते हैं। आप
सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और
जड़-चेतन के स्वामी हैं ।
हे अनाथों का कल्याण
करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है,
तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो
स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस की प्राप्ति के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं
।
जो काकभुशुण्डि के मन
रूपी मान सरोवर में विहार करने वाला हंस है,
सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा
करते हैं, हे
शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर
देखें ।
राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस
में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व के
निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक),
सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए ।
भगवान के नीले कमल, नीलमणि और नीले
(जलयुक्त) मेघ के समान (कोमल, प्रकाशमय और सरस) श्यामवर्ण (चिन्मय) शरीर की शोभा देखकर
करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं ।
* एहि विधि बीते बरष षट सहस
बारि आहार।
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
चौपाई
:
* बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ।
ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥
* मागहु बर बहु भाँति
लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥
* प्रभु सर्बग्य दास निज
जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥
* मृतक जिआवनि गिरा सुहाई।
श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥
दोहा :
* श्रवन सुधा सम बचन सुनि
पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥
चौपाई
:
* सुनु सेवक सुरतरु
सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥
* जौं अनाथ हित हम पर नेहू।
तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥
* जो भुसुंडि मन मानस हंसा।
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥3॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥3॥
* दंपति बचन परम प्रिय
लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥
दोहा :
* नील सरोरुह नील मनि नील
नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥
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