श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : मनु-शतरूपा तप
घर में रहते बुढ़ापा आ
गया, परन्तु
विषयों से वैराग्य नहीं होता इस बात को सोचकर मनु के मन में बड़ा दुःख हुआ कि श्री हरि की भक्ति बिना
जन्म यों ही चला गया ।
तब मनुजी ने अपने पुत्र
को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यन्त पवित्र और साधकों
को सिद्धि देने वाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है ।वहाँ मुनियों और
सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धि
वाले राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही
शरीर धारण किए जा रहे हों ।
चलते-चलते वे गोमती के
किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्मधुरंधर
राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए ।
जहाँ-जहाँ सुंदर तीर्थ
थे, मुनियों
ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों के से
वल्कल वस्त्र धारण करते थे और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे ।
और द्वादशाक्षर मन्त्र
(ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में
उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया ।
वे साग, फल और कन्द का आहार करते
थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे और
मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे ।
हृदय में निरंतर यही अभिलाषा
हुआ करती कि हम कैसे उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखंड, अनंत और अनादि हैं और
परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता)
लोग जिनका चिन्तन किया करते हैं ।
जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण
करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित
और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव,
ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं
।
ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक
के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में
यह वचन सत्य कहा है, तो
हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी ।
इस प्रकार जल का आहार
करके तप करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे ।
सोरठा
:
* होइ न बिषय बिराग भवन बसत
भा चौथपन॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥
चौपाई
:
* बरबस राज सुतहि तब
दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1॥
* बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध
समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥2॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥2॥
* पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा।
हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥3॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥3॥
* जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए।
मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥4॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥4॥
दोहा :
* द्वादस अच्छर मंत्र पुनि
जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥
चौपाई
:
* करहिं अहार साक फल कंदा।
सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥
* उर अभिलाष निरंतर होई।
देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥2॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥2॥
* नेति नेति जेहि बेद
निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3॥
* ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई।
भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4॥
दोहा :
* एहि विधि बीते बरष षट सहस
बारि आहार।
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
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