.
श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : शिव-पार्वती संवाद ।
शिवजी कहते हैं कि-
हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्री रामजी की कृपा
से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी
नहीं है ।
फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि
इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की
कथा नहीं सुनी, उनके
कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं ।
जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं
किए, उनके वे
नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी
के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते ।
जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान
नहीं दिया, वे
प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री
रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के
समान है ।
वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित
नहीं होता। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह
देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है ।
श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा
करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा! ।
श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा
देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी!
तुम इसे आदरपूर्वक सुनो ।
वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुंदर नाम, गुण, चरित्र,
जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री
रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत है तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी
के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है ।
परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही
कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद
गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं--जो मोह रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से
विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते,
ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते
हैं ।
.
दोहा :
* राम
कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥
चौपाई :
* तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत
सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥
* नयनन्हि संत दरस नहिं देखा।
लोचन मोरपंख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥
* जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ
प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥
* कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती।
सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥
दोहा :
* रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख
दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥
चौपाई :
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥
* राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम
करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥
* तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी।
कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥3॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥3॥
एक बात नहिं मोहि सोहानी।
जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥
दोहा :
* कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें