श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : विश्वमोहिनी का स्वयंवर
भगवान विष्णु जी ने कहा -
हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता ।
हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए ।
भगवान की माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारदजी तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी ।
राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुनि (नारद) मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी ।
कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया।
वहाँ शिवजी के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे। वे भी बड़े मौजी थे ।
नारदजी अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस पंक्ति में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका ।
वे नारदजी को सुना-सुनाकर, व्यंग्य वचन कहते थे- भगवान ने इनको अच्छी 'सुंदरता' दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और 'हरि' (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी ।
नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योंकि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था। शिवजी के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं, उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे ।
इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारदजी का) वह रूप देखा। उनका बंदर का सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया ।
तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी ।
दोहा :
* जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥
चौपाई :
* कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥1॥
* माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥2॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥3॥
* मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥4॥
दोहा :
* रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥
चौपाई :
* जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥
* करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥2॥
।
* मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥3॥
* काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥4॥
दोहा :
* सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥
श्रीरामचरितमानस से ...बालकांड
प्रसंग : विश्वमोहिनी का स्वयंवर
शिवगणों तथा भगवान् को शाप
राजकुमारी
सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों
में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी ।
जिस
ओर नारदजी रूप के गर्व में फूले बैठे थे, उस
ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा
देखकर शिवजी के गण मुसकराते हैं।
कृपालु
भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले
में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए। सारी राजमंडली निराश हो
गई ।
मोह
के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे
वे राजकुमारी को गई देख बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। तब
शिवजी के गणों ने मुसकराकर कहा- जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!
ऐसा
कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना
रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिवजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप
दिया-
तुम
दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना ।
मुनि
ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना असली रूप प्राप्त हो
गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ
फड़क रहे थे और मन में क्रोध भरा था। तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले ।
मन
में सोचते जाते थे- जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत में
मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ
में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी थीं ।
देवताओं
के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा- हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं
रहा ।
मुनि
ने कहा- तुम दूसरों की सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे
ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और
देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया ।
असुरों
को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर कौस्तुभ मणि ले ली।
तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो।
दोहा
:
* सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु
राजमराल।
देखत
फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥
चौपाई
:
* जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि
तेहिं न बिलोकी भूली॥
पुनि-पुनि
मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥1॥
* धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि
हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि
लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥2॥
* मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि
गई छूटि जनु गाँठी॥
तब
हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥3॥
* अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख
मुनि बारि निहारी॥
बेषु
बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥4॥
दोहा
:
* होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु
हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥।135॥
चौपाई
:
* पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ
संतोष न आवा॥
फरकत
अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥
.
* देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि
उपहास कराई॥
बीचहिं
पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥2॥
* बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले
बिकल की नाईं॥
सुनत
बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥3॥
* पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें
इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत
सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥4॥
दोहा
:
* असुर
सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ
साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥
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